MP News: क्या ससुर से विधवा बहू मांग सकती गुजारा-भत्ता, उच्च न्यायालय सुनाया अहम फैसला
MP High court decision : MP High Court ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है कि विधवा बहू ससुर से गुजारा भट्ट मांग सकती है या नहीं। आइए इस आम्ले में न्यायालय का पूरा विवरण देखें। हाल ही में एमपी हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि ससुर को अपनी विधवा बहू को भोजन देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह निर्णय लेते हुए अदालत ने 2005 के घरेलू हिंसा से महिलाओं का बचाव अधिनियम या मुस्लिम पर्सनल लॉ (बशीर खान बनाम इशरत बानो) का हवाला दिया।
MP News : बार एंड बेंच की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस हृदेश ने यह टिप्पणी की जब ट्रायल व सेशन कोर्ट ने एक व्यक्ति की याचिका को स्वीकार किया, जिसे अपनी विधवा बहू को मासिक 3,000 रुपये देने का आदेश दिया था। इसी निर्णय के खिलाफ व्यक्ति ने उच्च न्यायालय में अपील की थी। याचिकाकर्ता (याचिकाकर्ता) के वकील ने न्यायालय को बताया कि याचिकाकर्ता (याचिकाकर्ता) एक बुजुर्ग व्यक्ति है और मुस्लिम समुदाय से है, इसलिए उस पर अपनी विधवा बहू को भोजन देने का कोई दायित्व नहीं है. मुस्लिम पर्सनल लॉ। साथ ही, वकील ने बताया कि घरेलू हिंसा अधिनियम में ऐसा कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद न्यायालय ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया।
24 अक्टूबर को न्यायालय ने फैसला दिया कि मुसलमान कानून और घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, वर्तमान याचिकाकर्ता (याचिकाकर्ता), जो प्रतिवादी का ससुर है, उसे प्रतिवादी को भोजन देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।'
रिपोर्ट बताती है कि याचिकाकर्ता के बेटे की शादी 2011 में हुई थी। लेकिन उनके बेटे का 2015 में चार साल बाद ही निधन हो गया और अपनी पत्नी, याचिकाकर्ता की बहू को छोड़ गया। बाद में विधवा बहू ने अपने ससुराल वालों के खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला दर्ज कर दिया और न्यायालय में अपने ससुर से 40,000 रुपये प्रति महीना भरण-पोषण की मांग की।
महिला के ससुर यानी याचिकाकर्ता (Petitioner) ने बहू की याचिका का विरोध किया। हालांकि ट्रायल Court ने महिला के हक में फैसला देते हुए ससुर को अपनी विधवा बहू को हर महीने 3,000 रुपए देने का आदेश दे दिया।
ट्रायल Court के इस आदेश को चुनौती देते हुए ससुर ने सत्र न्यायालय में अपील की। लेकिन वहां भी उसकी अपील खारिज हो गई, जिसके बाद उसने (याचिकाकर्ता (Petitioner)) भरण-पोषण आदेश की सत्यता पर सवाल उठाने के लिए एक पुनरीक्षण याचिका दायर करके High Court का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता (Petitioner) के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता (Petitioner) एक बुजुर्ग व्यक्ति है और चूंकि वह मुस्लिम समुदाय से है, इसलिए मुस्लिम कानून (मुस्लिम पर्सनल लॉ) के तहत उस पर अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने का कोई दायित्व नहीं बनता है।
याचिकाकर्ता (Petitioner) के वकील ने अदालत को बताया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भी ऐसा कोई दायित्व नहीं है। इस संबंध में शबनम परवीन विरुद्ध पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य के केस में कलकत्ता High Court के फैसले सहित कुछ अन्य उच्च न्यायालयों के फैसलों का हवाला भी दिया गया। याचिकाकर्ता (Petitioner) के वकील ने कहा कि जब याचिकाकर्ता (Petitioner) का बेटा जीवित था, तब भी बहू अलग रह रही थी। ऐसे में याचिकाकर्ता (Petitioner) ने दावा किया कि वह अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं है।
उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता (Petitioner) के तर्कों को सही पाया और कहा कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ता (Petitioner) को उसकी बहू को भरण-पोषण देने का आदेश देकर गलती की थी। इसलिए याचिकाकर्ता (Petitioner) की याचिका को अनुमति दी गई और भरण-पोषण आदेश को रद्द कर दिया गया।